गुरुवार, 2 अगस्त 2012

ग़ज़ल (आरजू बनवास की)




ग़ज़ल (आरजू बनवास की)

नरक की अंतिम जमीं तक गिर चुके हैं  आज जो
नापने को कह रहे , हमसे बह  दूरियाँ  आकाश की

इस कदर अनजान हैं  ,हम आज अपने हाल से
खोजने से मिलती नहीं अब गोलिया सल्फास की 

आज हम महफूज है क्यों दुश्मनों के बीच में
दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की

बँट  गयी सारी जमी ,फिर बँट गया ये आसमान
क्यों आज फिर हम बँट गए ज्यों गद्दिया हो तास की

हर जगह महफ़िल सजी पर दर्द भी मिल जायेगा
हर कोई कहने लगा अब आरजू बनवास की

मौत के साये में जीती चार पल की जिंदगी
क्या मदन ये सारी  दुनिया,  है बिरोधाभास की



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

12 टिप्‍पणियां:

  1. वर्तमान हालातों को लेकर सार्थक अभिव्यक्ति !

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    1. बहुत आभार जो आप ने रचना का अवलोकन किया !
      भविष्य में ऐसी ही कृपा का आकांक्षी रहूँगा! धन्यवाद

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  2. वाह...
    बहुत बढ़िया..
    सुन्दर और अर्थपूर्ण गज़ल..

    अनु

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  3. सुन्दर प्रस्तुति |
    बधाई मदन भाई ||

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  4. उत्तर
    1. बहुत आभार जो आप ने रचना का अवलोकन किया !
      भविष्य में ऐसी ही कृपा का आकांक्षी रहूँगा! धन्यवाद

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  5. बहुत सराहनीय प्रस्तुति.
    बहुत सुंदर बात कही है इन पंक्तियों में. दिल को छू गयी. आभार !

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    उत्तर
    1. बहुत आभार जो आप ने रचना का अवलोकन किया !
      भविष्य में ऐसी ही कृपा का आकांक्षी रहूँगा! धन्यवाद

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  6. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...!!
    शुभकामनायें.

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  7. बहुत सुंदर प्रस्तुति ,शुभकामनायें.

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