सोमवार, 9 जुलाई 2012

ग़ज़ल (वक्त की रफ़्तार )


ग़ज़ल (वक्त    की रफ़्तार )

वक्त    की रफ़्तार  का कुछ भी भरोसा है नहीं
कल तलक था जो सुहाना कल बही विकराल हो

इस तरह से आज पग में फूल से कांटे चुभे है
चांदनी से खौफ लगता ज्यों  कालिमा का जाल हो

ये किसी की बदनसीबी गर नहीं तो और क्या है
याद आने पर किसी की हाल जब बदहाल हो

पास रहकर दूर हैं   और  दूर रहकर पास हैं 
ये गुजारिश है खुदा से  अब मिलन  तत्काल हो

चंद  लम्हों  की धरोहर आज जिनके  पास है
ब्यर्थ  से लगते मदन अब मास  हो या साल हो

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

रविवार, 8 जुलाई 2012

ग़ज़ल (ज़ालिम दुनियाँ )



 ग़ज़ल (ज़ालिम दुनियाँ )


ज़ालिम लगी दुनिया हमें हर शख्श  बेगाना लगा
हर पल हमें धोखे मिले अपने ही ऐतबार से

नफरत से की गयी चोट से हर जख्म हमने सह लिया
घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

प्यार के अहसास से जब जब रहे हम बेख़बर 
तब तब लगा हमको की हम जी रहे बेकार से

इजहार राज ए  दिल का वह जिस रोज मिल करने लगे
उस रोज से हम पा रहे खुशबु भी देखो खार से

जब प्यार से इनकार हो तो इकरार से है वो भला
मजा पाने लगा है अब ये मदन इकरार का इंकार से

क्या कहूँ कि आज कल का ये समय कैसा तो है
आदमी  ब्यापार से तो  प्यार करता ,दूर रहता प्यार से



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 21 जून 2012

ग़ज़ल (अपनी अपनी किस्मत)



ग़ज़ल (अपनी अपनी किस्मत)


गजब दुनिया बनाई है गजब हैं  लोग दुनिया के
मुलायम मलमली बिस्तर में अक्सर वो  नहीं सोते 

यहाँ  हर रोज सपने  क्यों, दम अपना  तोड़ देते हैं 
नहीं है पास में बिस्तर ,वो  नींदें चैन की सोते 

किसी के पास फुर्सत है  फुर्सत ही रहा करती 
इच्छा है कुछ करने की  पर मौके ही नहीं होते 

जिसे मौका दिया हमने   कुछ न कुछ करेगा वो 
किया कुछ भी नहीं उसने   सपने रोज वो बोते 

नहीं है कोई भी रोता ,  किसी और  के लिए
सब अपनी अपनी किस्मत को लेकर खूब रोते

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 7 जून 2012

ग़ज़ल (आजकल का ये समय)



ग़ज़ल (आजकल का ये समय)

सेक्स की रंगीनियों के आज के इस दौर में
स्वार्थ की तालीम अब मिलने लगी स्कूल से 

आगमन नए दौर का आप जिस को कह रहे

आजकल का ये समय भटका हुआ है मूल से 

दर्द का तोहफा  मिला हमको दोस्ती के नाम पर

दोस्तों के बीच में हम जी रहे थे भूल से

प्यार की हर बात से महरूम हो गए आज हम

दर्द की खुशबु भी देखो आ रही है फूल   से

बँट  गयी सारी जमी फिर बँट गया ये आसमान
अब खुदा बँटने लगा है इस तरह की तूल से

चार पल की जिंदगी में चन्द साँसोँ का सफ़र
मिलना तो आखिर है मदन इस धरा की धूल से





ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

सोमवार, 4 जून 2012

ग़ज़ल (मुश्किल)


ग़ज़ल (मुश्किल)


दुनियाँ  में जिधर देखो हजारो रास्ते  दीखते
मंजिल जिनसे मिल जाए बो रास्ते नहीं मिलते

किस को गैर कहदे हम और किसको  मान  ले अपना
मिलते हाथ सबसे है दिल से दिल नहीं मिलते

करी थी प्यार की बाते कभी हमने भी फूलो से
शिकायत सबको उनसे है क़ी उनके लब नहीं हिलते

ज़माने की हकीकत को समझ  जाओ तो अच्छा है
ख्बाबो  में भी टूटे दिल सीने पर नहीं सिलते

कहने को तो ख्बाबो में हम उनके साथ रहते है
मुश्किल अपनी ये की हकीक़त में नहीं मिलते




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

रविवार, 3 जून 2012

ग़ज़ल (चोट)

ग़ज़ल (चोट)


जालिम लगी दुनिया हमें हर शख्श  बेगाना लगा
हर पल हमें धोखे मिले अपने ही ऐतबार से

नफरत से की गयी चोट से हर जख्म हमने सह लिया
घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

प्यार के एहसास   से जब जब रहे हम बेखबर
तब तब लगा हमको की हम जी रहे बेकार से

इजहार राजे दिल का बो जिस रोज मिल करने लगे
उस रोज से हम पा रहे खुशबु भी देखो खार से

जब प्यार से इंकार हो तो इकरार से है बो भला
मजा पाने लगा है अब ये मदन इकरार का इंकार से


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 28 मई 2012

ग़ज़ल(ख्वाहिश)


ग़ज़ल(ख्वाहिश)

गर कोई हमसे कहे की रूप कैसा है खुदा का
हम यकीकन ये कहेंगे  जिस तरह से यार है

संग गुजरे कुछ लम्हों की हो नहीं सकती है कीमत
गर तनहा होकर जीए तो बर्ष सो बेकार है

सोचते है जब कभी हम  क्या मिला क्या खो गया 
दिल जिगर सांसे है अपनी  पर न कुछ अधिकार है

याद कर सूरत सलोनी खुश हुआ करते है हम
प्यार से बो दर्द देदे  तो हमें स्वीकार है 

जिस जगह पर पग धरा है उस जगह  खुशबु मिली है 
नाम लेने से ही अपनी जिंदगी गुलजार है 

ये ख्वाहिश  अपने दिल की है की कुछ नहीं अपना रहे 
क्या मदन इसको ही कहते लोग अक्सर प्यार है


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 24 मई 2012

ग़ज़ल ( दिलासा )




ग़ज़ल ( दिलासा )
सजाए  मोत का तोहफा  हमने पा लिया  जिनसे 
ना जाने क्यों बो अब हमसे कफ़न उधर दिलाने  की बात करते हैं 

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके एक इशारे पर 
ना जाने क्यों बो अब हमसे ज़माने की बात करते हैं 

दर्दे दिल मिला उनसे बो हमको प्यारा ही लगता
जख्मो पर बो हमसे अब मरहम लगाने की बात करते हैं 

हमेशा साथ चलने की दिलासा हमको दी जिसने
बीते कल को हमसे बो अब चुराने की बात करतेहैं 

नजरे जब मिली उनसे तो चर्चा हो गयी अपनी 
ना  जाने क्यों बो अब हमसे प्यार छुपाने की बात करतेहैं 




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 22 मई 2012

ग़ज़ल (खुदगर्जी)


ग़ज़ल (खुदगर्जी)




क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में

एक ज़मीं  वख्शी   थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में 

आज नजर आती मायूसी मानबता के चेहरे पर  
अपराधी को शरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में
 
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

रविवार, 22 अप्रैल 2012

ग़ज़ल (चार पल की जिन्दगी)


ग़ज़ल (चार पल की जिन्दगी)

कभी गर्दिशों से दोस्ती कभी गम से याराना हुआ
चार पल की जिन्दगी का ऐसे कट जाना हुआ


इस आस में बीती उम्र कोई हमे अपना कहे
अब आज के इस दौर में ये दिल भी बेगाना हुआ

जिस  रोज से देखा उन्हें मिलने लगी मेरी नजर
आँखों से मय पीने लगे मानो की मयखाना हुआ

इस कदर अन्जान हैं  हम आज अपने हाल से
हमसे बोला आइना ये शख्श  बेगाना हुआ



ढल नहीं जाते है लब्ज यू हीँ   रचना में  कभी
कभी गीत उनसे मिल गया ,कभी ग़ज़ल का पाना हुआ..

 

 ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना