ग़ज़ल (वक्त की रफ़्तार )
वक्त की रफ़्तार का कुछ भी भरोसा है नहीं
कल तलक था जो सुहाना कल बही विकराल हो
इस तरह से आज पग में फूल से कांटे चुभे है
चांदनी से खौफ लगता ज्यों कालिमा का जाल हो
ये किसी की बदनसीबी गर नहीं तो और क्या है
याद आने पर किसी की हाल जब बदहाल हो
पास रहकर दूर हैं और दूर रहकर पास हैं
ये गुजारिश है खुदा से अब मिलन तत्काल हो
चंद लम्हों की धरोहर आज जिनके पास है
ब्यर्थ से लगते मदन अब मास हो या साल हो
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना